भारतेंदु हरिश्चंद्र


निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल

बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।


अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन

पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।


उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय

निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय ।


निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय

लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय ।


इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग

तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग ।


और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात

निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात ।


तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय

यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय ।


विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार

सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।


भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात

विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात ।


सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय

उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय ।


कैसी होरी खिलाई।
आग तन-मन में लगाई॥
पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।
पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥

तबौ नहिं हबस बुझाई।

भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।
टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥

तुम्हें कैसर दोहाई।

कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥

तुन्हें कछु लाज न आई।


(भारतेन्दु जी की रचना ‘मुशायरा’ से)


मेरे नयना भये चकोर .

अनुदिन निरखत श्याम चन्द्रमा सुन्दर नंदकिशोर .

तनिक भये वियोग उर बाढ़त बहु बिधि नयन मरोर.

होत न पल की ओट छिनकहूँ रहत सदा दृग जोर.

कोऊ न इन्हें छुडावनहारों अरुझे रूप झकोर .

हरिचन्द नित छके प्रेम रस जानत साँझ न भोर .


विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् ।

स्टारार्थी लभते स्टारम् मोक्षार्थी लभते गतिं ।।

एक कालं द्विकालं च त्रिकालं नित्यमुत्पठेत।

भव पाश विनिर्मुक्त: अंग्रेज लोकं संगच्छति ।।

अर्थात इससे विद्यार्थी को विद्या , धन चाहने वाले को धन , स्टार-खिताब-पदवी चाहने वाले को स्टार और मोक्ष की कामना करने वाले को परमगति की प्राप्ति होती है । जो प्राणी रोजाना ,नियम से , तीनो समय इसका- (अंग्रेज - स्तोत्र का) पाठ करता है वह अंग्रेज लोक को गमन करने का पुण्य लाभ अर्जित करने का अधिकारी होता है ।


ऊधो जो अनेक मन होते
तो इक श्याम-सुन्दर को देते, इक लै जोग संजोते।
एक सों सब गृह कारज करते, एक सों धरते ध्यान।
एक सों श्याम रंग रंगते, तजि लोक लाज कुल कान।
को जप करै जोग को साधै, को पुनि मूँदे नैन।
हिए एक रस श्याम मनोहर, मोहन कोटिक मैन।
ह्याँ तो हुतो एक ही मन, सो हरि लै गये चुराई।
'हरिचंद' कौउ और खोजि कै, जोग सिखावहु जाई॥