गोपालदास नीरज

छिप छिप अश्रु बहाने वालो
मोती व्यर्थ लुटाने वालो
कुछ सपनो के मर जाने से
जीवन नही मरा करता है।

सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आंख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी

गीली उमर बनाने वालो
डूबे बिना नहाने वालो
कुछ पानी के बह जाने से
सावन नही मरा करता है।

माला बिखर गई तो क्या
खुद ही हल हो गई समस्या
आँसू ग़र नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या

रूठे दिवस मनाने वालो
फटी कमीज़ सिलाने वालो
कुछ दीपों के बुझ जाने से
आंगन नही मरा करता है।

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी
पहने सुबह धूप की धोती

वस्त्र बदलकर आने वालो
चाल बदलकर जाने वालो
चंद खिलौनों के खोने से
बचपन नही मरा करता है।

लाखों बार गगरियां फूटीं
शिक़न न आई पर पनघट पर
लाखों बार कश्तियां डूबीं
चहल पहल वोही है तट पर

तम की उम्र बढाने वालो
लौ की आयु घटाने वालो
लाख करे पतझर कोशिश पर
उपवन नही मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन
लुटी न लेकिन गंध फूल की
तूफानों तक ने छेड़ा पर
खिड़की बंद न हुई धूल की

नफरत गले लगाने वालो
सब पर धूल उडाने वालो
कुछ मुखडों की नाराज़ी से
दर्पन नही मरा करता है।


मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो..

हैं फ़ूल रोकते, काटें मुझे चलाते..
मरुस्थल, पहाड चलने की चाह बढाते..
सच कहता हूं जब मुश्किलें ना होती हैं..
मेरे पग तब चलने मे भी शर्माते..
मेरे संग चलने लगें हवायें जिससे..
तुम पथ के कण-कण को तूफ़ान करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो..

अंगार अधर पे धर मैं मुस्काया हूं..
मैं मर्घट से ज़िन्दगी बुला के लाया हूं..
हूं आंख-मिचौनी खेल चला किस्मत से..
सौ बार म्रत्यु के गले चूम आया हूं..
है नहीं स्वीकार दया अपनी भी..
तुम मत मुझपर कोई एह्सान करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो..

शर्म के जल से राह सदा सिंचती है..
गती की मशाल आंधी मैं ही हंसती है..
शोलो से ही श्रिंगार पथिक का होता है..
मंजिल की मांग लहू से ही सजती है..
पग में गती आती है, छाले छिलने से..
तुम पग-पग पर जलती चट्टान धरो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो..

फूलों से जग आसान नहीं होता है..
रुकने से पग गतीवान नहीं होता है..
अवरोध नहीं तो संभव नहीं प्रगती भी..
है नाश जहां निर्मम वहीं होता है..
मैं बसा सुकून नव-स्वर्ग “धरा” पर जिससे..
तुम मेरी हर बस्ती वीरान करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो..

मैं पन्थी तूफ़ानों मे राह बनाता..
मेरा दुनिया से केवल इतना नाता..
वेह मुझे रोकती है अवरोध बिछाकर..
मैं ठोकर उसे लगाकर बढ्ता जाता..
मैं ठुकरा सकूं तुम्हें भी हंसकर जिससे..
तुम मेरा मन-मानस पाशाण करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो..


जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।

थक गया जब प्रार्थना का पुण्य, बल,
सो गयी जब साधना होकर विफल,
जब धरा ने भी नहीं धीरज दिया,
व्यंग जब आकाश ने हँसकर किया,
आग तब पानी बनाने के लिए-
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।

जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।

बिजलियों का चीर पहने थी दिशा,
आँधियों के पर लगाये थी निशा,
पर्वतों की बाँह पकड़े था पवन,
सिन्धु को सिर पर उठाये था गगन,
सब रुके, पर प्रीति की अर्थी लिये,
आँसुओं का कारवाँ चलता रहा।

जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।

काँपता तम, थरथराती लौ रही,
आग अपनी भी न जाती थी सही,
लग रहा था कल्प-सा हर एक पल
बन गयी थीं सिसकियाँ साँसें विकल,
पर न जाने क्यों उमर की डोर में
प्राण बँध तिल तिल सदा गलता रहा ?

जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।

सो मरण की नींद निशि फिर फिर जगी,
शूल के शव पर कली फिर फिर उगी,
फूल मधुपों से बिछुड़कर भी खिला,
पंथ पंथी से भटककर भी चला
पर बिछुड़ कर एक क्षण को जन्म से
आयु का यौवन सदा ढलता रहा।

जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।

धूल का आधार हर उपवन लिये,
मृत्यु से शृंगार हर जीवन किये,
जो अमर है वह न धरती पर रहा,
मर्त्य का ही भार मिट्टी ने सहा,
प्रेम को अमरत्व देने को मगर,
आदमी खुद को सदा छलता रहा।

जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।


पीड़ा मिली जनम के द्वारे अपयश नदी किनारे
इतना कुछ मिल पाया एक बस तुम ही नहीं मिले जीवन में

हुई दोस्ती ऐसी दु:ख से
हर मुश्किल बन गई रुबाई,
इतना प्यार जलन कर बैठी
क्वाँरी ही मर गई जुन्हाई,
बगिया में न पपीहा बोला, द्वार न कोई उतरा डोला,
सारा दिन कट गया बीनते काँटे उलझे हुए बसन में।
पीड़ा मिली जनम के द्वारे अपयश नदी किनारे
इतना कुछ मिल पाया एक बस तुम ही नहीं मिले जीवन में

कहीं चुरा ले चोर न कोई
दर्द तुम्हारा, याद तुम्हारी,
इसीलिए जगकर जीवन-भर
आँसू ने की पहरेदारी,
बरखा गई सुने बिन वंशी औ' मधुमास रहा निरवंशी,
गुजर गई हर ऋतु ज्यों कोई भिक्षुक दम तोड़े दे विजन में।
पीड़ा मिली जनम के द्वारे अपयश नदी किनारे
इतना कुछ मिल पाया एक बस तुम ही नहीं मिले जीवन में

घट भरने को छलके पनघट
सेज सजाने दौड़ी कलियाँ,
पर तेरी तलाश में पीछे
छूट गई सब रस की गलियाँ,
सपने खेल न पाए होली, अरमानों के लगी न रोली,
बचपन झुलस गया पतझर में, यौवन भीग गया सावन में।
पीड़ा मिली जनम के द्वारे अपयश नदी किनारे
इतना कुछ मिल पाया एक बस तुम ही नहीं मिले जीवन में

मिट्‍टी तक तो रुंदकर जग में कंकड़ से बन गई खिलौना,
पर हर चोट ब्याह करके भी
मेरा सूना रहा बिछौना,
नहीं कहीं से पाती आई, नहीं कहीं से मिली बधाई
सूनी ही रह गई डाल इस इतने फूलों भरे चमन में।
पीड़ा मिली जनम के द्वारे अपयश नदी किनारे
इतना कुछ मिल पाया एक बस तुम ही नहीं मिले जीवन में

तुम ही हो वो जिसकी खातिर
निशि-दिन घूम रही यह तकली
तुम ही यदि न मिले तो है सब
व्यर्थ कताई असली-नकली,
अब तो और न देर लगाओ, चाहे किसी रूप में आओ,
एक सूत-भर की दूरी है बस दामन में और कफ़न में।
पीड़ा मिली जनम के द्वारे अपयश नदी किनारे
इतना कुछ मिल पाया एक बस तुम ही नहीं मिले जीवन में


दो गुलाब के फूल छू गए जब से होठ अपावन मेरे
ऐसी गंध बसी है मन में सारा जग मधुबन लगता है।

रोम-रोम में खिले चमेली
साँस-साँस में महके बेला,
पोर-पोर से झरे मालती
अंग-अंग जुड़े जुही का मेला

पग-पग लहरे मानसरोवर, डगर-डगर छाया कदम्ब की
तुम जब से मिल गए उमर का खंडहर राजभवन लगता है।

दो गुलाब के फूल....

छिन-छिन ऐसा लगे कि कोई
बिना रंग के खेले होली,
यूँ मदमाएँ प्राण कि जैसे
नई बहू की चंदन डोली

जेठ लगे सावन मनभावन और दुपहरी सांझ बसंती
ऐसा मौसम फिरा धूल का ढेला एक रतन लगता है।

दो गुलाब के फूल...

जाने क्या हो गया कि हरदम
बिना दिये के रहे उजाला,
चमके टाट बिछावन जैसे
तारों वाला नील दुशाला

हस्तामलक हुए सुख सारे दुख के ऐसे ढहे कगारे
व्यंग्य-वचन लगता था जो कल वह अब अभिनन्दन लगता है।

दो गुलाब के फूल....

तुम्हें चूमने का गुनाह कर
ऐसा पुण्य कर गई माटी
जनम-जनम के लिए हरी
हो गई प्राण की बंजर घाटी

पाप-पुण्य की बात न छेड़ों स्वर्ग-नर्क की करो न चर्चा
याद किसी की मन में हो तो मगहर वृन्दावन लगता है।

दो गुलाब के फूल...

तुम्हें देख क्या लिया कि कोई
सूरत दिखती नहीं पराई
तुमने क्या छू दिया, बन गई
महाकाव्य कोई चौपाई

कौन करे अब मठ में पूजा, कौन फिराए हाथ सुमरिनी
जीना हमें भजन लगता है, मरना हमें हवन लगता है।

दो गुलाब के फूल....


जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्‍व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।


खग ! उडते रहना जीवन भर!
भूल गया है तू अपना पथ,
और नहीं पंखों में भी गति,
किंतु लौटना पीछे पथ पर अरे, मौत से भी है बदतर।
खग ! उडते रहना जीवन भर!

मत डर प्रलय झकोरों से तू,
बढ़ आशा हलकोरों से तू,
क्षण में यह अरि-दल मिट जायेगा तेरे पंखों से पिस कर।
खग ! उडते रहना जीवन भर !

यदि तू लौट पडेगा थक कर,
अंधड़ काल बवंडर से डर,
प्यार तुझे करने वाले ही देखेंगे तुझको हँस-हँस कर।
खग ! उडते रेहना जीवन भर !

और मिट गया चलते चलते,
मंजिल पथ तय करते करते,
तेरी खाक चढाएगा जग उन्नत भाल और आखों पर।
खग ! उडते रहना जीवन भर !


सूनी-सूनी ज़िंदगी की राह है,
भटकी-भटकी हर नज़र-निगाह है,
राह को सँवार दो,
निगाह को निखार दो,

आदमी हो तुम कि उठा आदमी को प्यार दो,
दुलार दो।
रोते हुए आँसुओं की आरती उतार दो।

तुम हो एक फूल कल जो धूल बनके जाएगा,
आज है हवा में कल ज़मीन पर ही आएगा,
चलते व़क्त बाग़ बहुत रोएगा-रुलाएगा,
ख़ाक के सिवा मगर न कुछ भी हाथ आएगा,

ज़िंदगी की ख़ाक लिए हाथ में,
बुझते-बुझते सपने लिए साथ में,
रुक रहा हो जो उसे बयार दो,
चल रहा हो उसका पथ बुहार दो।
आदमी हो तुम कि उठो आदमी को प्यार दो,
दुलार दो।

ज़िंदगी यह क्या है- बस सुबह का एक नाम है,
पीछे जिसके रात है और आगे जिसके शाम है,
एक ओर छाँह सघन, एक ओर घाम है,
जलना-बुझना, बुझना-जलना सिर्फ़ जिसका काम है,
न कोई रोक-थाम है,

ख़ौफनाक-ग़ारो-बियाबान में,
मरघटों के मुरदा सुनसान में,
बुझ रहा हो जो उसे अंगार दो,
जल रहा हो जो उसे उभार दो,
आदमी हो तुम कि उठो आदमी को प्यार दो,
दुलार दो।

ज़िंदगी की आँखों पर मौत का ख़ुमार है,
और प्राण को किसी पिया का इंतज़ार है,
मन की मनचली कली तो चाहती बहार है,
किंतु तन की डाली को पतझर से प्यार है,
क़रार है,

पतझर के पीले-पीले वेश में,
आँधियों के काले-काले देश में,
खिल रहा हो जो उसे सिंगार दो,
झर रहा हो जो उसे बहार दो,
आदमी हो तुम कि उठो आदमी को प्यार दो,
दुलार दो।

प्राण एक गायक है, दर्द एक तराना है,
जन्म एक तारा है जो मौत को बजाता है,
स्वर ही रे! जीवन है, साँस तो बहाना है,
प्यार की एक गीत है जो बार-बार गाना है,
सबको दुहराना है,

साँस के सिसक रहे सितार पर
आँसुओं के गीले-गीले तार पर,
चुप हो जो उसे ज़रा पुकार दो,
गा रहा हो जो उसे मल्हार दो,
आदमी हो तुम कि उठो आदमी को प्यार दो,
दुलार दो।

एक चाँद के बग़ैर सारी रात स्याह है,
एक फूल के बिना चमन सभी तबाह है,
ज़िंदगी तो ख़ुद ही एक आह है कराह है,
प्यार भी न जो मिले तो जीना फिर गुनाह है,

धूल के पवित्र नेत्र-नीर से,
आदमी के दर्द, दाह, पीर से,
जो घृणा करे उसे बिसार दो,
प्यार करे उस पै दिल निसार दो,
आदमी हो तुम कि उठो आदमी को प्यार दो,
दुलार दो।
रोते हुए आँसुओं की आरती उतार दो॥


अंधियारा जिससे शरमाये,
उजियारा जिसको ललचाये,
ऎसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!

इतने छलको अश्रु थके हर
राहगीर के चरण धो सकूं,
इतना निर्धन करो कि हर
दरवाज़े पर सर्वस्व खो सकूं

ऎसी पीर भरो प्राणों में
नींद न आये जनम-जनम तक,
इतनी सुध-बुध हरो कि
सांवरिया खुद बांसुरिया बन जायें!

ऎसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!

घटे न जब अंधियार, करे
तब जलकर मेरी चिता उजेला,
पहला शव मेरा हो जब
निकले मिटने वालों का मेला

पहले मेरा कफ़न पताका
बन फहरे जब क्रान्ति पुकारे,
पहले मेरा प्यार उठे जब
असमय मृत्यु प्रिया बन जाये!

ऎसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!

मुरझा न पाये फसल न कोई
ऎसी खाद बने इस तन की,
किसी न घर दीपक बुझ पाये
ऎसी जलन जले इस मन की

भूखी सोये रात न कोई
प्यासी जागे सुबह न कोई,
स्वर बरसे सावन आ जाये
रक्त गिरे, गेहूं उग आये!

ऎसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!

बहे पसीना जहां, वहां
हरयाने लगे नई हरियाली,
गीत जहां गा आय, वहां
छा जाय सूरज की उजियाली

हंस दे मेरा प्यार जहां
मुसका दे मेरी मानव-ममता
चन्दन हर मिट्टी हो जाय
नन्दन हर बगिया बन जाये।

ऎसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!

उनकी लाठी बने लेखनी
जो डगमगा रहे राहों पर,
हृदय बने उनका सिंघासन
देश उठाये जो बाहों पर

श्रम के कारण चूम आई
वह धूल करे मस्तक का टीका,
काव्य बने वह कर्म, कल्पना-
से जो पूर्व क्रिया बन जाये!

ऎसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!

मुझे श्राप लग जाये, न दौङूं
जो असहाय पुकारों पर मैं,
आंखे ही बुझ जायें, बेबेसी
देखूं अगर बहारों पर मैं

टूटे मेरे हांथ न यदि यह
उठा सकें गिरने वालों को
मेरा गाना पाप अगर
मेरे होते मानव मर जाय!

ऎसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!


तब मानव कवि बन जाता है !
जब उसको संसार रुलाता,
वह अपनों के समीप जाता,
पर जब वे भी ठुकरा देते
वह निज मन के सम्मुख आता,
पर उसकी दुर्बलता पर जब मन भी उसका मुस्काता है !
तब मानव कवि बन जाता है !


है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिए
जिस तरह से भी हो ये मौसम बदलना चाहिए

रोज़ जो चेहरे बदलते है लिबासों की तरह
अब जनाज़ा ज़ोर से उनका निकलना चाहिए

अब भी कुछ लोगो ने बेची है न अपनी आत्मा
ये पतन का सिलसिला कुछ और चलना चाहिए

फूल बन कर जो जिया वो यहाँ मसला गया
जीस्त को फ़ौलाद के साँचे में ढलना चाहिए

छिनता हो जब तुम्हारा हक़ कोई उस वक़्त तो
आँख से आँसू नहीं शोला निकलना चाहिए

दिल जवां, सपने जवाँ, मौसम जवाँ, शब् भी जवाँ
तुझको मुझसे इस समय सूने में मिलना चाहिए


पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर!
वह मुसाफिर क्या जिसे कुछ शूल ही पथ के थका दें?
हौसला वह क्या जिसे कुछ मुश्किलें पीछे हटा दें?
वह प्रगति भी क्या जिसे कुछ रंगिनी कलियाँ तितलियाँ,

मुस्कुराकर गुनगुनाकर ध्येय-पथ, मंज़िल भुला दें?
ज़िन्दगी की राह पर केवल वही पंथी सफल है,
आँधियों में, बिजलियों में जो रहे अविचल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥

जानता जब तू कि कुछ भी हो तुझे ब़ढ़ना पड़ेगा,
आँधियों से ही न खुद से भी तुझे लड़ना पड़ेगा,
सामने जब तक पड़ा कर्र्तव्य-पथ तब तक मनुज ओ!
मौत भी आए अगर तो मौत से भिड़ना पड़ेगा,

है अधिक अच्छा यही फिर ग्रंथ पर चल मुस्कुराता,
मुस्कुराती जाए जिससे ज़िन्दगी असफल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर।

याद रख जो आँधियों के सामने भी मुस्कुराते,
वे समय के पंथ पर पदचिह्न अपने छोड़ जाते,

चिह्न वे जिनको न धो सकते प्रलय-तूफ़ान घन भी,
मूक रह कर जो सदा भूले हुओं को पथ बताते,
किन्तु जो कुछ मुश्किलें ही देख पीछे लौट पड़ते,
ज़िन्दगी उनकी उन्हें भी भार ही केवल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥

कंटकित यह पंथ भी हो जायगा आसान क्षण में,
पाँव की पीड़ा क्षणिक यदि तू करे अनुभव न मन में,
सृष्टि सुख-दुख क्या हृदय की भावना के रूप हैं दो,
भावना की ही प्रतिध्वनि गूँजती भू, दिशि, गगन में,
एक ऊपर भावना से भी मगर है शक्ति कोई,
भावना भी सामने जिसके विवश व्याकुल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥

देख सर पर ही गरजते हैं प्रलय के काल-बादल,
व्याल बन फुफारता है सृष्टि का हरिताभ अंचल,
कंटकों ने छेदकर है कर दिया जर्जर सकल तन,
किन्तु फिर भी डाल पर मुसका रहा वह फूल प्रतिफल,
एक तू है देखकर कुछ शूल ही पथ पर अभी से,
है लुटा बैठा हृदय का धैर्य, साहस बल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥


स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े - खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
पात-पात झर गये कि शाख़ - शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई

गीत अश्क बन गए छंद हो दफ़न गए
साथ के सभी दिये धुआँ पहन पहन गये
और हम झुके - झुके मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।

कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
क्या शबाब था कि फूल - फूल प्यार कर उठा
क्या जमाल था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ़ ज़मीन और आसमाँ उधर उठा

थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गयी कली - कली कि घुट गयी गली-गली
और हम लुटे - लुटे वक्त से पिटे-पिटे

साँझ की शराब का ख़ुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार लूँ

दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ
हो सका न कुछ मगर शाम बन गई सहर
वह उठी लहर कि ढह गये क़िले बिखर बिखर

और हम डरे - डरे नीर नयन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
माँग भर चली कि एक जब नई नई किरन

ढोलकें धुमुक उठीं ठुमक उठे चरन-चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन-नयन
पर तभी ज़हर भरी गाज एक वह गिरी

पुँछ गया सिंदूर तार - तार हुई चूनरी
और हम अजान से दूर के मकान से
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।